Wednesday, 4 September 2013

Indian Shastriya Music

भारतीय शास्त्रीय संगीत
का आधार:
भारतीय शास्त्रीय संगीत
आधारित है स्वरों व ताल के
अनुशासित प्रयोग पर।सात
स्वरों व बाईस श्रुतियों के
प्रभावशाली प्रयोग से
विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न
करने की चेष्टा की जाती है।
सात स्वरों के समुह को सप्तक
कहा जाता है। भारतीय संगीत
सप्तक के ये सात स्वर इस
प्रकार हैं
षडज (सा), ऋषभ(रे), गंधार(ग),
मध्यम(म), पंचम(प), धैवत(ध),
निषाद(नि)।
सप्तक को मूलत: तीन वर्गों में
विभाजित
किया जाता है...मन्द्र सप्तक़,
मध्य सप्तक व तार सप्तक।
अर्थात
सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में
गाया बजाया जा सकता है।षड्ज व
पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं
क्योंकि इनके स्थान में
किसी तरह का परिवर्तन
नहीं किया जा सकता और इन्हें
इनके शुद्ध रूप में
ही गाया बजाया जा सकता है
जबकि अन्य स्वरों को उनके
कोमल व तीव्र रूप में
भी गाया जाता है।
इन्हीं स्वरों को विभिन्न
प्रकार से गूँथ कर
रागों की रचना की जाती है।
राग क्या हैं :
राग संगीत की आत्मा हैं,
संगीत का मूलाधार। राग शब्द
का उल्लेख भरत नाट््य शास्त्र में
भी मिलता है। रागों का सृजन
बाईस श्रुतियों के विभिन्न
प्रकार से प्रयोग कर,
विभिन्न रस या भावों को दर्शाने
के लिए किया जाता है।
प्राचीन समय में रागों को पुरूष व
स्त्री रागों में अर्थात राग व
रागिनियों में विभाजित
किया गया था।सिऱ्फ
यही नहीं, कई रागों को पुत्र
राग का भी दर्जा प्राप्त था।
उदाहरणत: राग भैरव को पुरूष
राग, और भैरवी,
बिलावली सहित कई अन्य
रागों को उसकी रागिनियॉं तथा रा
ललित, बिलावल
आदि रागों को इनके पुत्र
रागों का स्थान दिया गया था।
बाद में आगे चलकर पं व़िष्णु
नारायण भातखंडे ने
सभी रागों को दस थाटों में बॉंट
दिया।अर्थात एक थाट से कई
रागों की उत्पत्ति हो सकती थी।
अगर थाट को एक पेड़
माना जाए व उससे
उपजी रागों को उसकी शाखाओं
के रूप में देखा जाए तो गलत न
होगा। उदाहरणत: राग शंकरा,
राग दुर्गा, राग
अल्हैया बिलावल आदि राग थाट
बिलावल से उत्पन्न होते हैं। थाट
बिलावल में सभी स्वर शुद्ध माने
गए हैं अत:
तकनीकी दृष्टि से इस थाट से
उपजे सभी रागों में सारे स्वर
शुद्ध प्रयोग किए जाने चाहिए।
मगर दस थाटों के इस सिद्धांत
के बारे में कई मतांतर हैं
क्योंकि कुछ राग
किसी भी थाट से मेल
नहीं खाते मगर उन्हें
नियमरक्षा हेतु किसी न
किसी थाट के अंतर्गत
सम्मिलित किया जाता है।
किसी भी राग में ज़्यादा से
ज़्यादा सात व कम से कम पॉंच
स्वरों का प्रयोग
करना ज़रूरी है।इस तरह
रागों को मूलत: ३ जातियों में
विभाजित किया जा सकता है...
१) औडव जाति जहॉं राग विशेष
में पॉंच स्वरों का प्रयोग होता हो
२) षाडव जाति जहॉं राग में छ:
स्वरों का प्रयोग होता हो
३) संपूर्ण जाति जहॉं राग में
सभी सात स्चरों का प्रयोग
किया जाता हो।
राग के स्वरूप को आरोह व अवरोह
गाकर प्रदर्शित
किया जाता है जिसमें राग
विशेष में प्रयुक्त होने वाले
स्वरों को क्रम में गाया जाता है।
उदाहरण के लिए राग
भूपाली का आरोह कुछ इस तरह है:
सा रे ग प ध सां।
किसी भी राग में
दो स्वरों को विशेष महत्व
दिया जाता है। इन्हें वादी स्वर
व संवादी स्वर कहते हैं।
वादी स्वर को राग
का राजा भी कहा जाता है
क्योंकि राग में इस स्वर
का बहुतायत से प्रयोग होता है।
दूसरा महत्वपूर्ण स्वर है
संवादी स्वर जिसका प्रयोग
वादी स्वर से कम मगर अन्य
स्वरों से अधिक किया जाता है।
इस तरह किन्हीं दो रागों में
जिनमें एक समान
स्वरों का प्रयोग होता हो,
वादी और संवादी स्वरों के
अलग होने से राग का स्वरूप बदल
जाता है। उदाहरणत: राग
भूपाली व देशकार में सभी स्वर
समान हैं मगर वादी व
संवादी स्वर अलग होने के कारण
इन रागों में आसानी से फ़र्क
बताया जा सकता है।
हर राग में एक विशेष स्वर
समुह के बार बार प्रयोग से उस
राग की पहचान
दर्शायी जाती है। जैसे राग
हमीर में 'ग म ध' का बार बार
प्रयोग किया जाता है और ये
स्वर समूह राग हमीर
की पहचान हैं।
मुगल़कालीन शासन के दौरान
ही शायद रागों के गाने बजाने
का निर्धारित समय
कभी प्रचलन में आया। जिन
रागों को दोपहर के बारह बजे से
मध्यरात्रि तक
गाया बजाया जाता था उन्हें
पूर्व राग कहा गया और
मध्यरात्रि से दोपहर के बीच
गाए बजाए जाने वाले
रागों को उत्तर राग कहा गया।
कुछ राग जिन्हें भोर
या संध्याकालीन समय में
गाया जाता था उन्हें
संधिप्रकाश राग कहा गया।
यही नहीं कुछ राग ऋतुप्रधान
भी माने गए। जैसे राग
मेघमल्हार वर्षा ऋतु में
गाया जाने वाला राग है।
इसी तरह राग बसंत को बसंत ऋतु
में गाए जाने की प्रथा है।
हमारी संस्कृति का एक स्तंभ
भारतीय शास्त्रीय संगीत,
जीवन को संवारने और
सुरुचिपूर्ण ढंग से जीने
की कला है। यह आधार है हर
तरह के संगीत का साथ
ही ऐसी गरिमामयी धरोहर है
जिससे लोक और लोकप्रिय
संगीत की अनेक धाराएँ
निकलती हैं जो न सिर्फ हमारे
तीज त्योहारों में राग रंग
भरती हैं बल्कि हमारे
विभिन्न संस्कारों और अवसरों में
भी उल्लासमय बनाते हुए
अनोखी रौनक प्रदान
करती हैं।

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